Sunday, June 15, 2014

Ek Shakhs... (A poem I wrote on Father's Day)


एक शख़्स


बुख़ार में तपता हुआ इक बदन,
मुझसे बोला यूं गुज़ारिशन(प्रार्थनापूर्वक)
मेरे लख़्त-ए-जिगर(जिगर का टुकड़ा), मेरी आँखों के नूर,
चली गई बीनाई-ए-चश्म(आँखों की रोशनी), दर्द से हूँ चूर
                                                
तुमको देखे एक तवील अर्सा(काफी वक़्त) हुआ,
तुम्हे मेहसूस किये बिना कोई पल ना गुज़रा,
जिस्म रेज़ा-रेज़ा, ख्वाब परेशान, दिल हरासान(टूटा हुआ),
रूह बेक़रार और सीने में चुभन

उस शख्स की तरफ बे-साख्ता(बेहिचक) नज़रें गईं,
झुरृिओं भरा चेहरा, तवानाइयों(ताक़त) से ख़ाली,
मैं खुश होता, तो पाता उसे क़रीब,
जो बीमार होता, तो वो ही मेरा हबीब(दोस्त)

मेरी बेपनाह आरज़ुओं पर जीता था,
मेरी नाकामीओं के घूँट पीता था,
था वो जब, होती तमाम दुनिया मेरे पास,
अब जो दुनिया है, तो सोज़--जिगर(परेशानियाँ), दिल उदास

बेकरां(स्वतंत्र) तमन्नाओं की था वो आखरी मंज़िल,
कड़ी धूप में भी रस्ता लगा नहीं मुश्किल,
साया--पिदर(पिता की छाया), मेरी जुस्तुजू(कोशिशों) का चराग़ था,
मेरी बलंदीओं, मेरी शोहरतों की आवाज़ था

सीने में ख़लिश(बीते हुए कल) के कांटे लिये हुए
मुद्दत हुई है तुमसे गले लगे हुए
जिन उंगलिओं ने चलना सिखाया था मुझे,
तरसती हैं, पानी का गिलास उठाने के लिये

छुपे छुपे से औराक़--माज़ी(बीते हुए कल) में,
तलाशते हो खुद को बोसीदा(पुरानी) किताबों में
तुम्हारा लहू मेरी रगों से बेह्ता हुआ,
उतरा जाता है तुम्हारी आँखों के प्यालों में

कई बरसों से फ़क़त, तुम्हे कोई गिला ही नहीं,
पथरीली आँखों से अब कुछ छलकता भी नहीं,
पूछता हूँ कभी जो तबीयत तुम्हारी,
जवाब का अब्बा, इंतेज़ार करता भी नहीं

मेरी इन्तेहा में तुम हो, मेरे आगाज़(शुरुआत)  में तुम,
मेरी खामोशिओं के समंदर, मेरी आवाज़ में तुम,
मेरी आमद(आने) का शब--रोज़(रात-दिन) इंतेज़ार कब तक करोगे ?
मेरे ज़ब्त(ठहराव) में तुम हो, मेरी परवाज़(उड़ान) में तुम

मेरी बे-सुद रातों की करवटें तुम हो,
मेरे दरवाज़ों पर शब की आहटें तुम हो,
मेरे मजरूह तख़ययुलात की आबरू तुम हो,
हाथों की लकीरें, पेशानी की सिलवटें तुम हो

बुख़ार में तपते हुए मेरे रूह--ज़ेहेन(आत्मा और दिमाग),
तुमसे रू--रू(बातें करते) हैं गुज़ारिशन ….

15.06.14                                             ज़ुहैर बिन सग़ीर, IAS