Tuesday, May 21, 2013


फ़ासले......













इक रोज़ उसके घर का पता ढूँढने निकला,
इक रोज़ अपने बाम-ओ-दर(मकान) को भूलने निकला,
फ़ासले मीलों के थे, नज़दीक मंज़िलों के दरमियाँ,
शिद्दत-ए-फिराक़(गहरी तलाश) हमें ना जाने ले आई है कहाँ?

मानूस(जाने-पहचाने) हैं चौराहे, पता लगता है कुछ पुराना सा,
बदले बदले से चेहरे, पर लगता है बीता ज़माना सा.
आरज़ू लिए बद-हवास(बिना होश में) क़दम हैं तलाश में,
शब-ओ-सहर सोज़ां(जलते हुए), ख़स्ता-हाल लिबास में.

उसके शहर की गलियाँ दिखती हैं बे-तरतीब(टेढ़ी-मेडी) सी,
उस बूढ़े पीपल की शाखें भी लगती हैं अजीब सी,
रब्त(रिश्ते) बाक़ी हो ना हो, ले के चला सोज़-ए-जिगर(दिल में दर्द),
दर-ब-दर(हर तरफ) आज़माइश(चुनौतियाँ), मंज़िल फिर भी लगे क़रीब सी.

ख़ाली आँगन ज़रूर रोया होगा मेरे बिन,
ख्हिल्वतो(अकेलेपन) में भला कैसे रहा होगा मेरे बिन,
धूप की बारीक़ लकीरें उसके चेहरे पे,
मानो बरसों मोती पिरोया होगा, मेरे बिन.

बेकस-ओ-बेबस हूँ मैं, खुश है वो बज़ाहिर(दिखने में),
माज़ी(बीते हुए कल) की बेबाक(बेधड़क) किल्कारियों में दिलसोज़(दिल को खींचने वाली) खामोशी यहाँ,
ग़ौर से देखो, दर-ओ-दीवार पे लिखी है इबारत(लिखावट) कोई,
ज़ब्त(कंट्रोल) तो देखो, पुर्नम(भीगी) आँखों ने छलकना नही सीखा.

मिली जो नज़रें, कई गुज़रे हुए ज़माने सितम बिखेरे,
चश्म-ए-नमनाक(नम आँखों) में पस-ए-आईना(आईने के पीछे) कोई ग़म समेटे,
उसकी मुस्कुराहट में हल्की सी लरज़िश(कंपकंपाहट) थी कहीं,
मानो दश्त(जंगल) में हो हिरनो को दहशत सी तारी.

यक-ब-यक(एका एक) चौखट पे नन्हा सा इक परिंदा,
अम्मी-अम्मी कहता हुआ गले से लग गया,
इक बार फिर नज़रों ने मुलाक़ात की, अलविदा कहा,
इक बार फिर तेरा शहर मुझको बेगाना लगा.

ज़ुहैर बिन सग़ीर, IAS
DM आगरा