Monday, December 31, 2012


लिखती हूँ एक ख़त. तुम्हारे नाम
I wrote this poem yesterday..a humble tribute, maybe...hope it jogs your memory for a while, at least..

आज सुबह मैने देखा है इक ख्वाब,
तुम हो उदासआँखें हैं पुर-आब(भीगी),
दुआएँ करते हो मेरे लिए, देते हो मुझे श्रद्धांजलि,
मेरी अम्मा को समझाते हुए, मेरे अब्बा को देते तसल्ली

मैं सिर्फ़ उनकी बेटी नहीं , इस क़ाएनात(यूनिवर्स) की बेटी हूँ,
मैं सिर्फ़ एक सिमटी हुई आवाज़ नहीं,
तुम्हारे सीनों में परवाज़ करती(घूमती) हुई गूँज हूँ मैं...
मेरे होठों पे तबस्सुम(स्माइल) अब ढूँढना ना तुम,
सुर्ख(लाल) आँखों की वहशत में कहीं हो गई हूँ गुम
नाज़ुक कलाईयों को, मुस्कुराहतों को, शोखियों(विवॅसिटी) को,
दहशत के सौदागरों ने ख़ून से रंग दिया है

निकली थी घर से बे-सर--सामान(विदाउट एनी थिंग),
था ख्वाब एक सीने में की मुझे भी कुछ बनना है;
अपने अब्बा का सहारा, अपनी अम्मी का दर्द दूर करना है;
हूँ मैं सीता की, ह्ववा की, मरयम की बेटी,
हूँ मैं तुम्हारे नैनों में बसी, मोती सी बेटी.

बस कुछ दिन और ज़ख़्म हैं, कुछ और रातें सरगर्म हैं,
कुछ मेहनत और..अम्मा!
ज़िंदगी की धूप छाँटेगी, सवेरा रात के दामन को चीरता हुआ,
एक नया कल ले कर आएगा

उस रात की सर्द खामोशी मेरे आगोश(आँचल) में दफ़न है,
सर्द हैं जज़्बात मेरे, तुम्हारी महफ़िल की नज़र हैं,
मेरी आबरू पाश-पाश, मेरे सीने में चुभन है,
मेरी हिफ़ाज़त ना कर सके तुम, बस यही छोटा सा गिला(कंप्लेंट) है
रेज़ा-रेज़ा कर के पावं तले मेरी इफ्फत(सेल्फ़ रेस्पेक्ट) को,
तार-तार करके जनाज़ा उठाए मेरी इस्मत(ऑनर) का,
पूछती हूँ एक सवाल तुमसे
क्या ज़िंदा रहने की भी क़ीमत चुकानी पड़ती है?
क्या मेहनत के पसीने की खुश्बू भी तुम्हे आबरू-रेज़ी(रेप) की तरफ खेंचती है?
क्या मेरी आँखों के समंदर में तुम्हे दर्द नही दिखता ?
दिखता नहीं तुम्हे एक शम्मा जो आँधियों के बमुक़ाबिल(ख़िलाफ) जूझ रही है,
मेरी पेशानी(माथे) की सिलवटें क्या तुम्हे अपने गुरूर(अहम) की चादरों सी लगती है,
जिसे तुमने लम्हे भर में उतार फेंका?

मेरा आज़ाद मुस्तक़्बिल(फ्यूचर) क्या तुम्हारी मुट्ठी में क़ैद है?
मेरा टिमटिमाता सा सूरज क्या तुम्हारी आँधियो की ज़द(क़ब्ज़े) में है?
सवाल पूछती हूँ मैं तुमसे

कह दो की तुम्हारी तरक़्क़ियाँ, तुम्हारे उसूल, तुम्हारे क़ानून,
सब मेरी साँसों से उलझ कर टूट गये हैं,
कह दो की जिस नन्ही कली को तुम जन्म देते हो,
उसकी हिफ़ाज़त खुदा पे छोड़ देते हो,
कह दो की तुम्हारे आदाब--ज़वाबित(तौर-तरीक़े)
मेरे खून के रंग से और नुमाया(साफ) दिखाई देते हैं

मेरे जिस्म की लाचारी, मेरा चाक(टॉर्न) दामन,
मेरी खामोशियाँ, मेरा दर्द, मेरी आहें,
मेरी चीख, वो मंज़र, वो वहशियाना निगाहें
सभी तुम्हारी महफ़िलों के चिरागों को लहू देते हैं,
मेरी सिसकती हुई आवाज़ तुम्हारे मैखानों(शराबखानों) में होते हुअय रक्स(नाच) को जिला(ज़िंदगी) देती हैं,
मेरी पुर्नम(भीगी हुई) आँखों के प्यालों से तुम्हारी मैय(शराब) में सुरूर आता है

कह दो की तुम्हारी तमाम बातें फक़त फरेब है,
कह दो की मेरी दर्द-आमेज़(दर्द भरी) दास्ताँ तुम्हे ज़ेब(अच्छी लगती) है

ज़ुहैर बिन सग़ीर, IAS
Vishesh Sachiv, Mukhyamantri
Uttar Pradesh
30.12.2012